गारंटियों के भ्रमजाल में बदलता नहीं दिख रहा सत्‍ता का रिवाज


रूपेश टिंकर 

राजस्‍थान में एक बार ये और एक बार वो का रिवाज यूं ही नहीं बना। गहराई में यही समझ आता है कि जनता को उसके काम हो या न हो, उससे ज्‍यादा मतलब नहीं है, काम तो एक सतत प्रक्रिया है, जो होता ही है, लेकिन सत्‍ता के नशे में इतराते नेता कतई बर्दाश्‍त नहीं है। विधायक, मंत्री और सरकार बनकर पांच साल जो सत्‍ता की ताकत में चूर होकर इतराते हैं, उसे अगले चुनाव में सबक जरूर सिखाया जाता है। वैसे तो अधिकतर मतदाता भाजपा और कांग्रेस की विचारधारा से परंपरागत रूप से जुड़े नजर आते हैं। परंतु 1-2 प्रतिशत मतदाताओं का उलटफेर सत्‍ताधारी को अर्श से फर्श पर ला पटकता है। 

प्रदेश के मतदाताओं के मूड में गौरतलब ये भी जब भाजपा सत्‍ता में आती है तो 150 से आगे तक पहुंच जाती है, लेकिन जब कांग्रेस आती है तो 99 पर आ अटकती है और जब भाजपा सत्‍ता से जाती है तो भी 77 पर रुकती है और वहीं कांग्रेस जब जाती है तो 21 तक सिमटती दिखाई पड़ती है। प्रदेश की लोकसभा सीटाें में पिछले दो चुनावों से कांग्रेस का खाता भी नहीं खुलता है। प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी और उसकी भाजपा की लोकप्रियता और स्‍वीकार्यता पर प्रदेशवासियों को अधिक भरोसा नजर आता है।

आम जन की योजनाओं से अलग सरकार और पार्टी की विशेष कृपा से जो लाभान्वित हुए हैं, वे तो सरकार के रिपीट होने की पुरजोर पैरवी में लगे है। सरकार और इसके नेताओं के काम का आकलन भी यही है कि विशेष कृपा से विशेष पैरोकार तैयार करने में ही पांच साल निकाल दिए, लेकिन विशेष कृपा के चलते हुई अनदेखी के कारण जो विशेष परेशान हुए हैं, उन्‍होंने इस सरकार को अब चलता करने की भी ठान ली है। प्रदेश में एक बार ये और एक बार वो का जो रिवाज चला है, उसका सबसे बड़ा कारण यही विशेष कृपा ही तो है और यह विधानसभा चुनाव भी इस रिवाज से अछूता नहीं है। 

डिजाइनर बॉक्‍स जैसी प्रोफेशनल कम्‍पनियों की सलाह पर वादों और घोषणाओं का नाम बदलकर गारंटी कर देने और एक आभासी मायाजाल खड़ा कर देने से पीडि़त और आहत आम जन तो तनिक भी भ्रमित नजर नहीं आ रहा है। वरना साल 2013 में भी इसी सरकार के काम तो बहुत गिनाए गए थे, लेकिन जनता ने भी वोट की चोट देकर सब तकलीफों का हिसाब चुकता किया था। 

दरअसल जो समझदार हैं, वे जानते हैं कि चुनाव की हवा किस ओर है, लेकिन स्‍वार्थसिद्धि के सिद्धहस्‍त इस हवा को पहचानने के बावजूद न तो मानने को तैयार हैं और न ही कुछ बदलने का सामर्थ्‍य रखते हैं। मुझे याद है वर्ष 2013 और वर्ष 2014 व 2019 में अपने सेट एजेंडे पर चलते हुए बहुत से लोग पूरी ताकत से जनमानस को झुठलाने में जुटे थे। वही लोग इस बार भी जनमानस को या तो पढ़ने में विफल हैं या फिर झुठलाने में जुटे हैं। 

पांच साल तक सत्‍ता की मलाई में हिस्‍सेदारी पाने वाले पैरोकार ही सरकार को डुबोने का काम करते हैं। राजस्‍थान में तो हर पांच साल में यही होता आ रहा है। मेरे अपने हमपेशे मीडिया के ही अनेक साथी बिना जमीनी हकीकत जाने बहस और दावे करते फिरते हैं, लेकिन जब तक अपनी सोच और सर्वे की दृष्टि को एक एक विधानसभा के अलग अलग छोर तक नहीं लेकर जाएंगे, वास्‍तविकता के ज्ञान से कभी परिचित नहीं हो पाएंगे। सत्‍ता के आभामंडल से बाहर निकलकर जनता जनार्दन के बीच खड़े होंगे, तभी उनकी तकलीफों और मूड को जान पाएंगे। 

यहां स्थिति सिर्फ कांग्रेस की ही नहीं, भाजपा की भी यही है। साल 2018 में सरकार जाने का कारण साफ था कि जनता की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे तो जनता ने रवाना कर दिया। 

वर्तमान विधानसभा चुनाव को ही देख लें, चुनावी साल में सब कुछ फ्री कर देने के बाद भी पांच साल की तकलीफें और नेताओं का भ्रष्‍टाचार और अहंकारपूर्ण रवैया जनता भूली नहीं है। यहां जनता के मूड के पीछे भी जनता को पार्टी से जोड़ने वाले कार्यकर्ताओं का मूड और भी महत्‍वपूर्ण है। पांच साल तक सत्‍ता के दौरान उपेक्षित कार्यकर्ता ही अपने से जुड़ी जनता का मूड बिगाड़ता है।  लेकिन पांच साल तक विपक्ष की भूमिका में अपमानित महसूस कर सब नाराजगी भुलाता है और अपनी पार्टी को फिर से सत्‍ता में लाने के लिए अपने से जुड़ी जनता का मूड बनाता है। 

देखा जाए तो राजस्‍थान में भाजपा का केडर ज्‍यादा मजबूत होने के कारण ही हारने पर भी उसे 77 और जीतने पर 150 सीटें हासिल होती है और केडर की कमजोरी के चलते हारने पर कांग्रेस 21 और जीतने पर भी 99 से आगे नहीं बढ़ती है। ऊपर से केन्‍द्रीय नेतृत्‍व की लोकप्रियता का भी पूरा लाभ उसे मिलता ही है। 

सत्‍ता का ऊंट इस बार किस करवट बैठेगा, यह तो 3 दिसम्‍बर को मतों की गणना से ही तय होगा

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