571 पत्रकारों की बस्ती उजाड़ने की ख्वाहिश में गलती पर गलती


2013 में जीएस संधू की कमेटी के छांटे 571 अब गलत कैसे

रूपेश टिंकर

जयपुर। हाई कोर्ट ने तो अपने आदेश में कभी नहीं कहा कि सरकार और जेडीए प्रदेश में लागू नीति के खिलाफ जाकर कोई काम करे, लेकिन आदेश को पढ़ने और समझने में फेल प्रशासन हाई कोर्ट के आदेश की अवहेलना करते हुए 571 निर्दोष परिवारों पर 10 साल से कुठाराघात कर रहा है और हाई कोर्ट को ही बदनाम करने पर आमादा है। 10 साल से जेडीए को इतनी सीधी और सरल बात भी समझ नहीं आ रही कि राज्य सरकार के नीति नियमों की पालना करना उसका कर्तव्य है, जिसकी भी उसने अवहेलना की है। इधर, जेडीए के लिपिक की त्रुटि के आगे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उनकी सरकार भी बेबस नजर आ रही है। 571 आवंटियों के सपनों को कुचलने और उनके आवंटित प्लॉट पर नए आवेदन लेने की जिद में कुछ नेताओं ने सरकार को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है।

गहलोत सरकार के करीबी कुछ नेता योजना में अपने चहेतों को भी घुसाने के लिए नए दाव लगाने में जुटे हैं। अधिस्वीकरण को जरूरी बताकर इसमें शिथिलता के नाम पर योजना में आवेदन पुनः कराने का नया दाव खेला गया है, लेकिन 571 आवंटियों ने योजना के सृजन के समय 20/10/2010 को जारी शिथिलता के आदेश सामने लाकर दाव की ही हवा निकाल दी है।

मजेदार बात ये है कि अगर योजना में अधिस्वीकरण जरूरी था तो तत्कालीन यूडीएच सचिव जीएस संधू, जेडीसी कुलदीप रांका, डीपीआर सचिव राजीव स्वरूप, डायरेक्टर लोकनाथ सोनी की कमेटी ने 571 में से गैर अधिस्वीकृत और वर्तमान में गलत ठहराए जा रहे 559 पत्रकारों का चयन किस आधार पर किया था। यूडीएच मंत्री शांति धारीवाल और जेडीसी कुलदीप रांका ने 17 अप्रैल, 2013 को 559 अवैध लोगों को किस आधार पर लॉटरी में शामिल कर प्लॉट आवंटित कर दिए। योजना में नया दाव लगाने वालों ने सरकार को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है।

मामला साल 2013 में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के ड्रीम प्रोजेक्ट पत्रकार नगर नायला का है। सभी जानते हैं कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की प्रदेश में जारी पत्रकार आवास नीति के अनुसार 5 वर्ष की पत्रकारिता का अनुभव रखने वाले पत्रकारों को प्रदेश भर में भूखंड दिए गए हैं। इस नीति में कभी भी अधिस्वीकृत पत्रकार होने की पात्रता नहीं रखी गई थी। लेकिन सरकार के आदेशों और नीतियों की धज्जियां उड़ाने में अव्वल जेडीए 10 साल से 571 आवंटी पत्रकारों से अधिस्वीकरण का प्रमाण पत्र मांग रहा है। 

लचरता की हद है कि न तो आवेदन के समय और न ही चयन के समय इस प्रमाण पत्र की आवश्यकता थी और न ही चयन में सफल 571 आवेदकों की भूखंड आवंटन के समय इसकी आवश्यकता थी, लेकिन लॉटरी से भूखंड आवंटन के बाद कब्जा पत्र देते समय यह प्रमाण पत्र जरूरी बता दिया गया। आवेदकों से पंजीयन राशि भी वसूल ली गई और लॉटरी से आवंटित प्लॉटों की सूची भी आज दिन तक जेडीए की वेबसाइट पर मौजूद है। सरल भाषा में यूं कहें कि स्नातक योग्यताधारी आवेदकों से शिक्षक भर्ती परीक्षा में आवेदन, परीक्षा, चयन और स्कूल आवंटन होने के बाद पीएचडी की डिग्री मांग ली जाए तो इसे अनीति, अन्याय की कौनसी श्रेणी में माना जाएगा।

जेडीए के विधि अधिकारी साल 2013 में भी कोर्ट को बताकर आए थे कि अधिस्वीकरण का प्रमाण पत्र जरूरी नहीं है। राज्य सरकार के आदेश के विरुद्ध यह लिपिकीय त्रुटि से ब्रोशर में अंकित हो गया है।


वरिष्ठ अधिवक्ता एन के मालू ने जनवरी, 2014 में जेडीए को दी विधिक राय में ही बता दिया था कि योजना में 571 आवंटी प्रदेश में लागू पत्रकार आवास नीति के अनुसार सही हैं। योजना के ब्रोशर में लिपिकीय त्रुटि से राजकीय आदेश के विपरीत अंकित बिंदु 13.3.2 को डिलीट किया जा सकता है और संशोधित ब्रोशर के अनुसार कार्य किया जा सकता है, लेकिन प्रदेश में चुनाव बाद आई नई सरकार को तो पुरानी सरकार की योजना पर पानी फेरना था।

अधिक मजेदार ये भी है कि सरकार की भी इतनी हिम्मत नहीं कि जेडीसी को कह सके कि हमने पत्रकार आवास के लिए जो नीति बनाई थी और जेडीए को जो आदेश दिए थे, उसमे तो कभी भी अधिस्वीकरण की अनिवार्यता नहीं रखी थी। सभी अड़चनों के लिए हाई कोर्ट नाम लेकर उसे ही बदनाम किया जा रहा है, जबकि हाई कोर्ट ने तो साल 2013 में ही 15 दिन में विधिसम्मत, नीतिगत कार्यवाही के  निर्देश देकर मामले की हमेशा के लिए बंद कर दिया था। 15 दिन के बाद 10 साल निकल गए, 571 निर्दोष आवंटी पत्रकारों के साथ अन्याय बदस्तूर जारी है। वाह रे, गहलोत सरकार। अनीति की पराकाष्ठा इसे ही कहा जाएगा।

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