कोर्ट ने तो 15 दिन में कार्यवाही को कहा था, इन्होंने पूरा मामला ही डाल दिया ठंडे बस्ते
जयपुर। सौ आरोपी भले छूट जाए, परंतु एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए, यह न्यायपालिका का एक स्थापित सिद्धांत है। लेकिन यहां तो बिना किसी दोष के ही पिंकसिटी प्रेस एनक्लेव, नायला पत्रकार नगर के 571 आवंटी पत्रकार सजा भुगतने को मजबूर हैं। 571 आवंटी पत्रकारों की कहानी भी एक मजेदार पटकथा की तरह ही है। पहले तो पत्रकार कल्याण की नायला आवास योजना में अपनी फर्जी पहचान के साथ एक गैर पत्रकार शख्स आता है और जनहित याचिका के माध्यम से फच्चर फंसाकर गायब हो जाता है। इस फच्चर में जेडीए और सरकार सुधबुध खो बैठते हैं और इस फच्चर के शिकार हो जाते हैं 571 आवंटी।
अब हाई कोर्ट के निर्णय की आड़ में संवैधानिक कमेटी के विधिवत चयन किए 571 आवंटियों के साथ 9 साल से बदस्तूर अन्याय जारी है। हाई कोर्ट ने तो निर्णय में मात्र नियम कानूनों के अनुसार योग्य आवंटी को ही भूखंड का कब्जा देने की बात कही थी, लेकिन निर्णय की आड़ में अड़ंगेबाजों ने 571 आवंटियों की फुटबॉल बनाकर रख दी है, जो भी एक तरह से न्यायालय की अवमानना ही है।
अकर्मण्यता की हद है कि हाई कोर्ट के साफ सुथरे आदेश, जिसमें कि न्यायसंगत कार्य करने को कहा गया था, को भी मजाक बनाकर रख दिया है। मजे की बात है कि इसी कर्मण्यता के लिए कोर्ट ने अपने दूसरे निर्णय में जेडीए व प्रशासन को फटकार लगाते हुए इनका प्रार्थना पत्र भी खारिज किया है। पहले भी निर्णय की धज्जियां उड़ाई थी और अब भी निर्णय की धज्जियां उड़ाई जा रही है।
गौरतलब है कि माननीय न्यायालय ने अपने निर्णय में किसी भी प्रकार के नए नियम या योग्यता को नहीं जोड़ा था। न्यायालय ने तो सिर्फ इतना ही तो कहा था कि नियम और योग्यताओं की पुन: जांच कर 15 दिन में याचिकाकर्ता को सूचित कर दें कि किसी भी अयोग्य को प्लॉट नहीं दिए जा रहे हैं। न्यायालय के निर्णय के बाद याचिकाकर्ता को 15 दिन में इतना ही तो लिखकर देना था कि सभी 571 आवंटी ब्रोशर में प्रकाशित पात्रताएं पूरी करते हैं और नियम 1995 की पालना भी करते हैं। कहीं कोई समस्या ही नहीं थी, लेकिन तत्काल निर्णय लेने की क्षमता की कमी के चलते 571 आवंटी पत्रकारों का भविष्य अंधकारमय बना दिया गया।
हालांकि याचिकाकर्ता ने अनेक तथ्यों से न्यायालय को अनजान रखा, जो कि सुनवाई के दौरान रखे जाने थे और न्यायालय ने रिकॉर्ड पर उपलब्ध तथ्यों, परिस्थितियों और सामग्री के आधार पर निर्णय सुनाया। न्यायालय ने जेडीए और सरकार को निर्देश जारी किए कि उन्हीं सफल और योग्य आवेदकों को प्लॉट दिए जाएं जोकि ब्रोशर की शर्तों की पालना करते हो और राजस्थान प्रेस अधिस्वीकरण नियम 1995 की पालना करते हों। जिस अधिस्वीकरण प्रमाण पत्र पर अधिकारी अटके हुए हैं, उसे तो न्यायालय ने भी निर्देशों में अनिवार्य नहीं बताया है। न्यायालय ने तो नियम 1995 की पालना को जरूरी माना है।
देखा जाए तो नियम 1995 को ध्यान में रखते हुए ही तो पत्रकार आवास समस्या के लिए राज्यपाल की आज्ञा से गठित संवैधानिक समिति ने पात्रताओं में 5 वर्ष की सक्रिय पत्रकारिता के प्रमाण को ही योजना में प्लॉट पाने की प्रमुख पात्रता मानी थी। मतलब तो यही है कि जो 5 वर्ष की सक्रिय पत्रकारिता का अनुभव रखते हैं, वे नियम 1995 के अनुसार अधिस्वीकरण की भी पात्रता रखते हैं और वे ही योजना में प्लॉट पाने की प्रमुख पात्रता भी पूरी करते हैं। अब मजे की बात यह भी देखो कि नियम 1995 की पात्रता की जांच करने और तय करने वाले अधिकारी डीआईपीआर के तत्कालीन आयुक्त खुद भी राज्य स्तरीय आवास समिति में सचिव के रूप में शामिल थे और उन्होंने भी तो हस्ताक्षर कर सभी 571 की पात्रताओं को प्रमाणित किया हुआ है।
पिंकसिटी प्रेस एनक्लेव, नायला पत्रकार नगर के सम्बन्ध में 3 जुलाई 2013 को हाई कोर्ट के जिस निर्णय की आड़ लेकर योजना के आवंटियों के पट्टे रोके जा रहे हैं, उसमें तो माननीय न्यायालय ने 15 दिन में कार्रवाई कर याचिकाकर्ता को सूचित करने के आदेश दिए थे। लेकिन जेडीए और सरकार ने 9 साल निकाल दिए।
अब इस मामले में न्यायालय का दूसरे निर्णय की कहानी भी कम रोचक नहीं है। हुआ यूं कि 3 जुलाई, 2013 के न्यायालय के निर्णय के बाद जेडीए के अधिकारी पूरी आवंटन प्रक्रिया को ही रोककर बैठ गए और याचिकाकर्ता को 15 दिन में जवाब देने के बजाय तीन माह बाद वापस मिसलीनियस प्रार्थना पत्र लेकर हाई कोर्ट पहुंचे। जेडीए अधिकारियों ने हाई कोर्ट को वे विधिसम्मत तथ्य और जानकारियां दीं जो कि जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान न्यायालय के रिकॉर्ड पर नहीं थी। लेकिन जेडीए की कार्यवाही में देरी से खफा न्यायालय ने यह कहते हुए प्रार्थना पत्र खारिज कर दिया कि उन्हें तो 15 दिन में इससे याचिकाकर्ता को सूचित करना था। कोर्ट ने बताए गए विधिसम्मत तथ्यों से इनकार भी नहीं किया।
मिसलीनियस प्रार्थना पत्र में जेडीए की स्वीकारोक्ति
जेडीए ने मिसलीनियस प्रार्थना पत्र में माना है कि ब्रोशर के प्रकाशन में गलती हुई है। ब्रोशर में छपी पात्रताएं और योग्यताएं जेडीए ने तय नहीं की हैं। राज्य सरकार ने 20 अक्टूबर, 2010 को सर्कुलर जारी कर राजस्थान नगरीय सुधार नियम 1974 में शिथिलता देते हुए प्रदेश भर में पत्रकारों के लिए विशिष्ट आवासीय योजनाएं सृजित करने और पत्रकारों को आवासीय आरक्षित दर की 50 प्रतिशत की दर पर भूखंड आवंटित करने के निर्देश दिए थे। इन निर्देशों में निर्धारित पात्रताओं के तहत ही ब्रोशर बना था। बाद में अन्य सर्कुलर आदेशों में समस्याएं दूर करने के लिए कुछ शिथिलताएं भी जारी की गई। वाइब्रेंट डेमोक्रेसी बनाए रखने के लिए नियमानुसार पत्रकार कल्याण की यह योजना बनाई गई थी।
जेडीए ने न्यायालय को बताया कि जेडीए, आवासन मंडल एवं अन्य में राजस्थान प्रेस अधिस्वीकरण नियम 1995 के तहत पत्रकारों के लिए निर्धारित अनुपात में प्लॉट आरक्षित रखे जाते हैं, ब्रोशर में मांगे गए अधिस्वीकरण प्रमाण की बात इन्हीं आरक्षित प्लॉटों के लिए छपी है। यह पूरी योजना ही विशेष रूप से पत्रकारों के लिए बनी है और सभी ही पांच वर्ष की सक्रिय पत्रकारिता की अधिस्वीकरण के समकक्ष पात्रता रखते हैं, इसलिए अधिस्वीकृत पत्रकारों के लिए अलग से आवेदन ही नहीं लिए गए हैं।
16 सितम्बर 2013 को सुनाए निर्णय में न्यायालय ने जेडीए के इन तर्कों से इनकार नहीं किया है, लेकिन पिछले निर्णय की अब तक पालना नहीं होने पर तीखी नाराजगी जताई। न्यायालय ने जेडीए का प्रार्थना पत्र यह कहते हुए खारिज किया कि प्रतिवादी की ओर से मामले की आवश्यक जांच की जानी थी और 15 दिन में निर्णय कर याचिकाकर्ता को अवगत कराना था। प्रतिवादी और आवेदक ने न तो ब्रोशर को वापस लिया और न ही कानून के अनुसार प्रासंगिक तथ्यों और सामग्री की पृष्ठभूमि में निर्णय लेने के लिए मामले की जांच की है। इसलिए मिसलिनियस प्रार्थना पत्र को सुनने योग्य नहीं माना।
मजे की बात है कि इस पूरे प्रकरण में तत्कालीन अधिकारियों की लापरवाही का खामियाजा 571 आवंटियों को बिना किसी दोष के भुगतना पड़ रहा है। न्यायालय ने कानून के अनुसार काम करने को कहा है, लेकिन कानून का मजाक बनाकर रख दिया गया है।
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